भीष्म ने अर्जुन को क्यों बताया था अपनी मृत्यु का रहस्य


कहा जाता है इतिहास केवल विजेताओं को ही याद रखता है। वे लोग जो जंग के मैदान में हार जाते हैं उन्हें इतिहास अपनी आलोचना का पात्र बनाकर दरकिनार कर देता है। महाभारत की कहानी भी कुछ ऐसी ही है, जिसमें कई
महायोद्धाओं का जिक्र किया गया है। इसके अलावा कई ऐसी शख्सियतों का भी उल्लेख है जिन्होंने अपने पराक्रम के बल पर कुरुक्षेत्र के उस भयंकर युद्ध में अपनी-अपनी भूमिका अदा की थी। जिसने युद्ध को जीता उसकी गलतियों को भी न्याय समझ कर टाल दिया गया और हारने वाले पक्ष की खूबियों को भी नजरअंदाज कर दिया गया। दुर्योधन, कर्ण और भीष्म पितामाह, महाभारत ग्रंथ के कुछ ऐसे ही पात्र हैं, जिनके चरित्र को बहुत हद तक गलत समझा गया। भीष्म पितामह, कुरुवंश के रखवाले और कर्ता-धर्ता होने के बावजूद अपनी आंखों के सामने हो रहे कुकर्मों को रोक नहीं पाए। कौरवों और पांडवों की उस लड़ाई में सबसे ताकतवर और प्रभावशाली होने के बाद भी वह इस भयंकर युद्ध में विवश होकर शामिल हुए। देवव्रत जिन्हें भीष्म पितामह के नाम से बेहतर जाना जाता है, तीव्र बौद्धिक और युद्ध क्षमता वाले थे। वे इतने ताकतवर थे कि उन्होंने विष्णु के अवतार माने जाने वाले अपने गुरु परशुराम, जिन्हें कभी कोई हरा नहीं पाया, को युद्ध में मात दी थी।  भीष्म पितामह के विषय में कई बातें कहीं जाती हैं, जिनमें से कुछ नकारात्मक तो कुछ सकारात्मक हैं। फर्क बस ये है कि देवव्रत के विषय में हम नकारात्मक बातें ज्यादा जानते हैं और सकारात्मक बहुत कम। भीष्म पितामह के जीवन से ऐसा बहुत कुछ जुड़ा है जो किसी भी सामान्य व्यक्ति को प्रभावित कर सकता है। उनका जीवनकाल बस इसी बात पर आधारित नहीं है कि उन्होंने कुरुवंश के शासक का आजीवन साथ देने की शपथ ली थी। देवी गंगा और शांतनु के पुत्र देवव्रत को वासु का अवतार माना जाता है। हालांकि शांतनु के एकमात्र पुत्र होने के कारण देवव्रत ही हस्तिनापुर की गद्दी के हकदार थे लेकिन इस बीच कुछ ऐसा हुआ, जिसके बाद हस्तिनापुर का सिंहासन भले ही देवव्रत के हाथ से चला गया लेकिन उनके भीतर छिपा एक समर्पित पुत्र बाहर निकल आया। गंगा के देवस्थान लौट जाने के बाद शांतनु की मुलाकात सत्यवती नामक मत्स्य कन्या से हुई। शांतनु, सत्यवती से विवाह करना चाहते थे लेकिन सत्यवती के पिता की शर्त ने शांतनु को बांध दिया। सत्यवती के पिता ने यह शर्त रखी कि सत्यवती और शांतनु की संतान ही हस्तिनापुर का शासन संभालेगी। ये सुनकर शांतनु ने विवाह का निश्चय त्याग दिया, लेकिन उनकी हालत देखकर देवव्रत स्वयं सत्यवती के पिता के पास गए और यह प्रतिज्ञा की कि वह आजीवन विवाह नहीं करेंगे और हर परिस्थिति में हस्तिनापुर के सम्राट का साथ देंगे। उनकी इस प्रतिज्ञा ने ही शांतनु और सत्यवती का विवाह करवाया था। इस भीष्म प्रतिज्ञा के पश्चात ही देवव्रत का नाम भीष्म पड़ गया था। विष्णु के अवतार माने जाने वाले परशुराम एकमात्र ऐसे ब्राह्मण योद्धा थे जिन्होंने धरती पर राज करने वाले बुरे क्षत्रियों का संहार किया था। परशुराम के क्रोध से सभी वाकिफ थे इसलिए कभी कोई उनके समीप आने की कोशिश तक नहीं करता था लेकिन महायोद्धा भीष्म भी परशुराम के ही शिष्य बने। परशुराम के साथ रहते-रहते भीष्म ने युद्धकला, प्रबंधन, शिक्षा और अध्यात्म से जुड़ा हर पक्ष सीखा था। भीष्म ने आजीवन विवाह ना करने की सौगंध ली थी, लेकिन जब अम्बा ने परशुराम की चौखट पर जाकर यह गुजारिश की कि भीष्म उनके साथ विवाह करने के लिए राजी हो जाएं तब परशुराम ने भी भीष्म को मनाने की कोशिश की। लेकिन परशुराम के आदेश को भी भीष्म ने अवीकार कर दिया। इस पर परशुराम क्रोधित हो उठे और भीष्म को युद्ध के लिए ललकारा। भीष्म यह जानते थे कि परशुराम से जीतना उनके बस की बात नहीं है फिर भी गुरु की इच्छा पूरी करने के लिए उन्होंने यह युद्ध किया। इस युद्ध में परशुराम की हार भी हुई थी। हम ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि भीष्म पितामह ने हस्तिनापुर के शासक का हर हाल में साथ देने, उसकी ओर से युद्ध करने की प्रतिज्ञा ली थी। ऐसे हालातों में हस्तिनापुर के शासक धृष्टराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन की ओर से ओर से युद्ध करके उन्होंने अपने वचन की रक्षा की थी।  वैसे भी उस पौराणिक काल के राजा, महाराजाओं और शाही परिवारों के लिए वचनबद्धता अपने प्राण, अपने सम्मान से ऊपर हुआ करती थी। ऐसे में भीष्म पितामह द्वारा हर परिस्थिति में अपने दिए गए वचन की रक्षा करने का गुण सभी को सीखना चाहिए। यद्यपि भीष्म पितामह ने यह वचन लिया था कि वह हर परिस्थिति में हस्तिनापुर के सम्राट का साथ देंगे लेकिन जब कौरवों और पांडवों के बीच कुरुक्षेत्र का युद्ध छिड़ा तो भीष्म पितामह यह अच्छी तरह जानते थे कि वे इस बार गलत पक्ष के साथ हैं। पितामह यह भी भली प्रकार जानते थे कि जब तक वे पांडवों के विरुद्ध और कौरवों के साथ हैं तब तक कोई भी कौरवों को हरा नहीं सकता इसलिए उन्होंने स्वयं एक चाल चली। युद्ध के दौरान महान से महान योद्धा का बाण भी भीष्म पितामह का बाल भी बांका नहीं कर पा रहा था। ऐसे में स्वयं पितामह ने जाकर अर्जुन को संकेत दिए कि किस तरह उन्हें मारा जा सकता है। भीष्म ने अर्जुन को बताया कि वह कभी किसी स्त्री के सामने हथियार नहीं उठाते, किसी स्त्री पर प्रहार नहीं करते। भीष्म पितामह के ये कहने पर अर्जुन ने शिखंडी की सहायता ली। शिखंडी के पीछे छिपकर अर्जुन ने भीष्म पर वार किया, जिसकी वजह से भीष्म मृत्यु शैया पर जा पहुंचे। भीष्म की ये सभी विशेषताएं किसी भी सामान्य व्यक्ति को सामाजिक रूप से महान बना सकती हैं। कर्तव्यपरायणता, निष्ठा और धर्म का पालन करना कर्तव्य से ज्यादा आज के समय की जरूरत बन गई है। अपने वचन के पालन करने के लिए भीष्म ने अपने प्राणों तक की परवाह नहीं की, इससे बड़ा त्याग और क्या हो सकता है।